आज के वैज्ञानिक युग की तरक्की और नई – नई खोजें देखकर लगता है कि जैसे मानवजाति उस ऊंचाई तक पहुँच जायेगा , जिसे लोग ईश्वरीय शक्ति की तरह देखेंगे, जहाँ सबकुछ संभव होगा, न तो कोई बीमार होगा और न ही बूढ़ा। लोग अमरत्व को प्राप्त करेंगे और अपनी खोजों से इस अनंत ब्रह्माण्ड पर राज करेंगे। आज अमेरिका, रूस , चीन , जापान आदि देश अपनी प्रद्योगिकी क्षमता और वैज्ञानिक खोजों के कारन विश्वशक्ति के रूप में उभर कर सामने आये हैं , जिनके सामने बाकी अन्य देश नतमस्तक होते हैं और इन देशों की बुद्धिमत्ता का लोहा मानते हैं। लेकिन इन सभी के बीच में हमारा आधुनिक देश भारत भी कहीं न कहीं सामानांतर में आने की कोशिश कर रहा है और काफी हदतक सफल भी रहा है।
मुझे अपने देश पर बहुत गर्व होता है, हो भी क्यों नहीं, चाहे आधुनिक भारत हो या प्राचीन भारत, हमेशा से ही महान रहा है। पूर्व में हमारा देश भारत विश्वगुरु था, चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में हो या फिर प्रद्योगिकी अथवा वैज्ञानिक क्षेत्र में। यदि पूर्व समय की भारतीय वैज्ञानिक खोजों अथवा शिक्षा की बात की जाये तो आधुनिक खोजों एवं शिक्षण में काफी आगे जान पड़ता है।
इस लेख में हम भारतीय पुराणों, वेदों और ग्रंथों में बताई गयी वैज्ञानिक बातों की आधुनिक वैज्ञानिकता से तुलना कर यह पता करने की कोशिश करेंगें की अभी मानवजाति और कितनी तरक्की कर सकती है , और कौन सी ऐसी बातें हैं जिन्हे आज भी जानने समझने की जरूरत है, जो की पूर्व में ही खोजी जा चुकी हैं।
हमारे ऋषियों ने मनुस्मृति, बाल्मीकि रामायण, महाभारत, षड दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद,अर्थवेद, शिल्पादि )आदि जैसे ग्रंथो के सहारे मानव जीवन को अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञान प्रदान किया है। हमारे वेद दुनिया के प्रथम धर्मग्रंथ भी हैं । इसी के आधार पर इस विश्व में तमाम विषयों की उत्पत्ति हुई जिन्होंने वेदों के ज्ञान को अपने अपने तरीके से भिन्न भिन्न भाषा में प्रचारित किया। वेद ईश्वर द्वारा ऋषियों को सुनाए गए ज्ञान पर आधारित है इसीलिए इसे श्रुति कहा गया है। सामान्य भाषा में वेद का अर्थ होता है ज्ञान। वेद पुरातन ज्ञान विज्ञान का अथाह भंडार है। इसमें मानव की हर समस्या का समाधान है। वेदों में ज्योतिष, गणित, रसायन, औषधि, प्रकृति, खगोल, भूगोल, धार्मिक नियम, इतिहास, रीति-रिवाज आदि लगभग सभी विषयों से संबंधित ज्ञान भरा पड़ा है।
इसके आलावा भी भारतीय ज्ञानकोष में ज्योतिष शास्त्र, सूर्यसिद्धांत जैसे महान लेख उपलब्ध हैं जिसमे बीजगणित, अंक विद्या, भूगोल, खगोल, और भूगर्भ विद्या आदि निहित है।
ज्योतिष विषयों का आदि स्रोत वेद की ऋचाएं हैं । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल के सूक्त 164 का नाम अस्यवामीय सूक्त है । इस सूक्त के मन्त्रद्रष्टा ऋषि दीर्घतमस् हैं । यह सूक्त ज्योतिष शास्त्र का प्रेरणादायक स्रोत है-
द्वादशारं न हि तजराय ववंति चक्रं परि द्यामृतस्य ।
आ पुत्रा अग्ने मिथुनासो अन्न सप्तशतानि विंशतिश्च तस्थुः ।।
इसका अर्थ निम्न प्रकार है :
सूर्य का चक्र जिसमें बारह अरे हैं, जो निरन्तर घूमता रहता है, कभी थकता भी नहीं, जीर्ण भी नहीं होता, मरता भी नहीं । 720 इसके पुत्र हैं (360 दिन और 360 रात्रियाँ)।
अथर्ववेद में दो सूक्त उन्नीसवें काण्ड में हैं (सूक्त 7 और 8 ), इस सूक्त में 27 नक्षत्रों की गणना दी गयी है। वेद से
प्रेरणा पाकर लगध मुनि ने वेदांग ज्योतिष की रचना की जिसके प्रलोक ऋग्ज्योतिष और यजुः-ज्योतिष् नाम से मिलते हैं। लगध का काल 6०० ईसा से पूर्व माना जाता है । ज्योतिष् के लिए एक और शब्द काल-विधान-शास्त्र (यजुः-ज्योतिष 3) है । ‘गणित” शब्द का भी प्रयोग इसी अर्थ में लगध ने किया है, और वेदांग के इस अंग की महिमा इस प्रकार व्यक्त की है :
शिखा मयूराणां नामानां मणयो यथा ।
तद्वद् वेस्राग शास्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ।।
इसका अर्थ निम्न प्रकार है :
मयूर के शरीर में जो शिखा की शोभा है, और साँपों के शिर में मणि की वही महिमा वेदांगों में गणित की अर्थात् गणित-ज्योतिष की है।
उपर्युक्त श्लोकों से यही प्रतीत होता है की जो गाडनायें वैज्ञानिक आज कर पाए हैं वो हजारों वर्ष पहले से ऋग्वेद आदि वेदों एवं ग्रंथों में में निहित हैं।
उपर्युक्त चित्र से यह समझा जा सकता है की वेदों से ही इस अत्यंत विशाल ज्ञान की उत्पत्ति हुई है।
ज्योतिषशास्त्र वेद का प्रधान अंग है क्योंकि इसी से यज्ञों का समय निश्चित किया जाता है। इसलिए प्राचीन काल में भारतवर्ष में ज्योतिषशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन पुण्यकार्य समझा जाता था। इसका दूसरा नाम कालविधानशास्त्र अथवा कालज्ञान भी है।
यदि वेद की संहिताओं, ब्राह्मण-ग्रन्थों और उपनिषदों का निष्पक्ष भाव से अध्ययन किया जाय तो पता चलेगा कि उस प्रागैतिहासिक काल में भी आकाश-दर्शन के अनुभव जहाँ-तहाँ भरे पड़े हैं और उन पर खूब तर्क-वितर्क किया गया है । यदि ऐसा न होता तो अयन विन्दु के भिन्न-भिन्न नक्षत्रों में होने की बात कहाँ से आती, ऋतुओं और महीनों तथा तिथियों और नक्षत्रों का सम्बन्ध किस प्रकार जान पाते ! मध्यकालीन भारत में भी बुद्धिमान और सूक्ष्मदर्शी ज्योतिषियों और गणितज्ञों का अभाव नहीं था। आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, मुंजाल, केशव, आदि के ग्रन्थ पढ़नेवाले यह जान सकते हैं कि आकाश की घटनाओं के बारे में इन्होंने कैसी-कैसी सूक्ष्म बातें लिखी हैं । अब तो शंकर बालकृष्ण दीक्षित, प्रबोधचन्द्र सेनगुप्त आदि ने प्राच्य और पाश्चात्य ज्योतिषियों के ग्रन्यों के तुलनात्मक अध्ययन से भी यह सिद्ध कर दिया है कि भारतीय ज्योतिष अत्यंत ज्ञानवान एवं प्रतिष्ठित है। आर्यभटीय से स्पष्ट प्रतीत होता है कि आर्यभट ने भारत के प्राचीन ज्योतिष् का मंथन करके तथा सूर्य, चन्द्र, ग्रहों और नक्षत्रों का स्वयं निरीक्षण करके आर्यभटीय ग्रन्थ का निर्माण किया था।
यह लेख आगे भी अन्य टाइटलों के माध्यम से जारी रहेगी……..
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